जोधपुर के किले जिसे कि मेहरानगढ के नाम से जाना जाता है उसी के बराबर में कुछ दूर पहले एक स्मारक है जिसे जसवंत थडा के नाम से जाना जाता है । इस...
जोधपुर के किले जिसे कि मेहरानगढ के नाम से जाना जाता है उसी के बराबर में कुछ दूर पहले एक स्मारक है जिसे जसवंत थडा के नाम से जाना जाता है । इसे जोधपुर के राजा जसवंत द्धितीय की याद में बनवाया गया था । राजा जसवंत सिंह के पुत्र सरदार सिंह ने मकराना के पत्थरो से 1899 में बनवाया था । ये सफेद संगमरमर जो कि मकराना से लाया गया यहां पर उसे महाराजाओ के दाह संस्कार के लिये उपयोग में लाया जाता था । पहले ये अंतिम संस्कार मंडौर में किये जाते थे । इस संगमरमर में कुछ ऐसी शिलायें भी बताते हैं जिनमें से सूर्य की किरणे आर पार हो जाती हैं ।
स्मारक के पास एक झील है जिसमें बहुत सारे पक्षी भी जल विहार करते रहते हैं । मेरे आने के समय तो एक सारस भी था पर जैसे ही मै आया और टिकट लेने लगा तो इस बीच में वो उडकर कहीं और चला गया । यहां का टिकट भारतीयो के लिये 40 रूपये है । उस समय इस स्मारक को बनाने में पोने तीन लाख रूपये का खर्च आया बताते हैं । अब यहां पर महाराजा जसवंत सिंह और उनके परिवार के अन्य सदस्यो के भी स्मारक हैं । अन्य सदस्यो के स्मारक के रूप में छतरियां बनायी गयी हैं ।
चांदनी रात में भी इसका दीदार किया जा सकता है । रात के 8 बजे तक ये खुला रहता है । मेरे पहुंचने तक यहां पर कोई नही आया था पर मेरे घूमने के समय तक यहां पर कई विदेशियो की गाडियां रूक चुकी थी और उसके बाद तो मेरे बाहर निकलने तक भीड हो चुकी थी ।
अब बात करते हैं इस यात्रा की । बहुत दिनो से मै एकल यात्रा पर नही गया था और एकल यात्रा पर मै जाना तो बाइक से चाहता था पर इस बार मन ट्रेन से बनाया । तो करीब एक महीने पहले वीकेंड का प्लान बनाया और बृहस्पतिवार की रात्रि से लेकर रविवार की रात्रि तक के टिकट बुक करा लिये गये । पहला टिकट दिल्ली से जोधपुर का था यानि रात ट्रेन में सोते हुए गुजारनी थी । उसके बाद शुक्रवार पूरा दिन जोधपुर घूमने के बाद रात को जोधपुर से जैसलमेर की ट्रैन बुक करा दी जो कि रात को 12 बजे से थी और सुबह 6 बजे जैसलमेर पहुंचा देनी थी । शनिवार दिन भर जैसलमेर घूमने के बाद रात को 12 बजे बीकानेर के लिये ट्रेन थी जो सुबह साढे पांच बजे पहुंच जानी थी । बीकानेर से भी रविवार रात की ट्रेन थी जो कि दिल्ली अगले दिन सुबह 5 बजे तक आ जानी थी ।
यानि चार रात ट्रेन में थी और सफर इन्ही में पूरा करना था । तीन दिन में कहीं सोने का मन होगा तो देखा जायेगा होटल लेने के लिये ये सोचकर मैने ये टिकट बुक कर लिये । चारो रात के और इस पूरे सफर सर्विस चार्ज और अन्य खर्च सहित 1144 रूपये में बुक हो गये । सभी टिकट नार्मल बुक हो गये थे और एक महीने पहले ही इस काम को कर लिया था । जनवरी के महीने में हमारे एरिया में काफी सर्दी रहती है और धुंध भी पर राजस्थान की साइड में ऐसा कम ही होता है । वैसे तो सबसे ज्यादा गर्मी के अलावा सर्दी के रिकार्ड बनाने में भी राजस्थान आगे है । तो समय के साथ साथ एक दो बार ऐसा माहौल भी बना कि टिकट रदद कराना होगा पर मैने कई कार्यक्रम रदद कर दिये पर इस कार्यक्रम को बेकार नही होने दिया क्योंकि एक दिन का टिकट रदद कराने पर भी सारा ही रदद हो जाना था ।
तय समय पर एक छोटे से बैग में अपना सामान और एक जोडी कपडे रखकर दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया । संयोग से चारो ट्रेन में मेरी सीट उपर की बुक हुई थी । दिल्ली में सर्दी थी पर कोहरा नही था इसलिये एक हल्का सा कंबल मै लेकर चला था पर ये मेरे काम केवल रात को ट्रेन में ही आया । सुबह सवेरे जोधपुर में ट्रेन बिलकुल समय पर पहुंची और स्टेशन से बाहर निकलकर मै चाय की दुकान पर बैठ गया । यहां पर मैने कैमरा बैग से निकालकर लटका लिया और चाय पीने के बाद वहीं पर पूछताछ करके स्टेशन के सामने की ओर करीब तीन सौ मीटर चलकर एक तिराहे पर आ गया । यहां पर बस रूकी जिससे मैने किले पर जाने की बात पूछी तो उसने कहा कि वो किले तक तो नही जायेगा पर काफी आगे उतार देगा जहां से किले जाने वाली आटो मिल जायेगी । बस ने 8 रूपये का टिकट लिया और मुझे थोडा आगे एक चौराहे पर उतार दिया जहां पर मैजिक कार किले पर जाने के लिये तैयार थी । उसने दस रूपये लिये और किले पर उतार दिया पर मैने किले से पचास कदम पहले ही जसवंत थडा का बोर्ड देखा था तो मै किले के गेट से वापस आया और पहले जसवंत थडा घूमने लगा ।
जसवंत थडा घूमने के पीछे मेरा ये भी विचार था कि किले के खुलने में अभी समय हो सकता है और मै जल्दी आ गया था तो तब तक यहीं पर घूम लेता हूं ।और ये बढिया रहा क्योंकि जब तक किला खुला तब तक मै घूम चुका था यहां पर ।
स्मारक के पास एक झील है जिसमें बहुत सारे पक्षी भी जल विहार करते रहते हैं । मेरे आने के समय तो एक सारस भी था पर जैसे ही मै आया और टिकट लेने लगा तो इस बीच में वो उडकर कहीं और चला गया । यहां का टिकट भारतीयो के लिये 40 रूपये है । उस समय इस स्मारक को बनाने में पोने तीन लाख रूपये का खर्च आया बताते हैं । अब यहां पर महाराजा जसवंत सिंह और उनके परिवार के अन्य सदस्यो के भी स्मारक हैं । अन्य सदस्यो के स्मारक के रूप में छतरियां बनायी गयी हैं ।
चांदनी रात में भी इसका दीदार किया जा सकता है । रात के 8 बजे तक ये खुला रहता है । मेरे पहुंचने तक यहां पर कोई नही आया था पर मेरे घूमने के समय तक यहां पर कई विदेशियो की गाडियां रूक चुकी थी और उसके बाद तो मेरे बाहर निकलने तक भीड हो चुकी थी ।
अब बात करते हैं इस यात्रा की । बहुत दिनो से मै एकल यात्रा पर नही गया था और एकल यात्रा पर मै जाना तो बाइक से चाहता था पर इस बार मन ट्रेन से बनाया । तो करीब एक महीने पहले वीकेंड का प्लान बनाया और बृहस्पतिवार की रात्रि से लेकर रविवार की रात्रि तक के टिकट बुक करा लिये गये । पहला टिकट दिल्ली से जोधपुर का था यानि रात ट्रेन में सोते हुए गुजारनी थी । उसके बाद शुक्रवार पूरा दिन जोधपुर घूमने के बाद रात को जोधपुर से जैसलमेर की ट्रैन बुक करा दी जो कि रात को 12 बजे से थी और सुबह 6 बजे जैसलमेर पहुंचा देनी थी । शनिवार दिन भर जैसलमेर घूमने के बाद रात को 12 बजे बीकानेर के लिये ट्रेन थी जो सुबह साढे पांच बजे पहुंच जानी थी । बीकानेर से भी रविवार रात की ट्रेन थी जो कि दिल्ली अगले दिन सुबह 5 बजे तक आ जानी थी ।
यानि चार रात ट्रेन में थी और सफर इन्ही में पूरा करना था । तीन दिन में कहीं सोने का मन होगा तो देखा जायेगा होटल लेने के लिये ये सोचकर मैने ये टिकट बुक कर लिये । चारो रात के और इस पूरे सफर सर्विस चार्ज और अन्य खर्च सहित 1144 रूपये में बुक हो गये । सभी टिकट नार्मल बुक हो गये थे और एक महीने पहले ही इस काम को कर लिया था । जनवरी के महीने में हमारे एरिया में काफी सर्दी रहती है और धुंध भी पर राजस्थान की साइड में ऐसा कम ही होता है । वैसे तो सबसे ज्यादा गर्मी के अलावा सर्दी के रिकार्ड बनाने में भी राजस्थान आगे है । तो समय के साथ साथ एक दो बार ऐसा माहौल भी बना कि टिकट रदद कराना होगा पर मैने कई कार्यक्रम रदद कर दिये पर इस कार्यक्रम को बेकार नही होने दिया क्योंकि एक दिन का टिकट रदद कराने पर भी सारा ही रदद हो जाना था ।
तय समय पर एक छोटे से बैग में अपना सामान और एक जोडी कपडे रखकर दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया । संयोग से चारो ट्रेन में मेरी सीट उपर की बुक हुई थी । दिल्ली में सर्दी थी पर कोहरा नही था इसलिये एक हल्का सा कंबल मै लेकर चला था पर ये मेरे काम केवल रात को ट्रेन में ही आया । सुबह सवेरे जोधपुर में ट्रेन बिलकुल समय पर पहुंची और स्टेशन से बाहर निकलकर मै चाय की दुकान पर बैठ गया । यहां पर मैने कैमरा बैग से निकालकर लटका लिया और चाय पीने के बाद वहीं पर पूछताछ करके स्टेशन के सामने की ओर करीब तीन सौ मीटर चलकर एक तिराहे पर आ गया । यहां पर बस रूकी जिससे मैने किले पर जाने की बात पूछी तो उसने कहा कि वो किले तक तो नही जायेगा पर काफी आगे उतार देगा जहां से किले जाने वाली आटो मिल जायेगी । बस ने 8 रूपये का टिकट लिया और मुझे थोडा आगे एक चौराहे पर उतार दिया जहां पर मैजिक कार किले पर जाने के लिये तैयार थी । उसने दस रूपये लिये और किले पर उतार दिया पर मैने किले से पचास कदम पहले ही जसवंत थडा का बोर्ड देखा था तो मै किले के गेट से वापस आया और पहले जसवंत थडा घूमने लगा ।
जसवंत थडा घूमने के पीछे मेरा ये भी विचार था कि किले के खुलने में अभी समय हो सकता है और मै जल्दी आ गया था तो तब तक यहीं पर घूम लेता हूं ।और ये बढिया रहा क्योंकि जब तक किला खुला तब तक मै घूम चुका था यहां पर ।