दो से ढाई घंटे का हमारा अंदाजा था कि उदयपुर पहुंच जायेंगे और ऐसा ही हुआ । शाम हो चुकी थी पहुंचते पहुंचते और हमें सबसे पहले रूकने की सोचनी ...
दो से ढाई घंटे का हमारा अंदाजा था कि उदयपुर पहुंच जायेंगे और ऐसा ही हुआ । शाम हो चुकी थी पहुंचते पहुंचते और हमें सबसे पहले रूकने की सोचनी थी । तो शहर में घुसते ही लालाजी ने पूछना शुरू कर दिया कि जैन धर्मशाला कहां पर है । लालाजी जैन धर्म में भी श्वेताम्बर संप्रदाय को मानने वाले थे ।
किसी ने बताया कि यहां तो सबसे बडी एक ही धर्मशाला है किसी सेठ जी के नाम पर थी रास्ते में ही पडी । हमने गाडी खडी कर ली पूछने के लिये मै और मा0 जी उतर गये । मुझे अब उस धर्मशाला का नाम तो याद नही है क्योंकि मैने आपको पहले ही बताया है कि मुझे होटलो या धर्मशालाओ के नाम याद नही रहते हैं पर उदयपुर की वो काफी बडी धर्मशाला थी और कई तो गाडिया बडी बसे वहां खडी थी जो तीर्थ यात्रियो को बडी संख्या में लेकर आती हैं और जिनके साथ खाना बनाने वाले भी साथ में ही होते हैं । तो उस धर्मशाला में ऐसा नजारा था कि जैसे मेलो में होता है भंडारो जैसे वहां खाने बन रहे थे । कई कमरे तो उसमें ऐसे थे जो ऐसे लग रहे थे कि इसमें यात्री नही स्थाई निवासी रहते हों । किराया तो बहुत सस्ता था हमने कहा कमरा दिखा दो तो आफिस पर मौजूद आदमी बोला कि अपने आप देख आओ और उसने एक कमरे का नंबर बता दिया । इस धर्मशाला में गेट में घुसने के बाद में तीन ओर बिल्डिंग थी तीन या चार मंजिली तो हम दूसरी मंजिल पर जिस कमरे को उसने बताया था उसमें पहुंच गये । कमरा काफी बडा था और उसमें एक लोहे का पलंग पडा हुआ था बस एक पलंग । लैट्रिन बाथरूम कामन थे । हम फिर नीचे उतरकर आये और आफिस में मौजूद आदमी से पूछा कि हम तो काफी आदमी हैं पर कमरे में तो पलंग एक ही है तो उसने कहा कि बाकी आदमी नीचे सो जाना तब मैने पूछा कि कपडो का कैसे होगा तो बोला कि पास में दुकान है किराये पर मिल जायेगा जो चाहोगे । हमने अपने कान ऐंठे कि बस हो गई धर्मशाला । अकेले तो कैसे भी लेट जायें पर जब परिवार साथ में हो तो फिर तो ठीक ठाक जगह देखनी पडेगी । बाहर गाडी के पास आये तो तब तक लालाजी जो कि गाडी के पास ही थे उन्होने एक अपनी धर्मशाला का पता पूछ लिया था वो पास ही में थी गाडी में बैठकर पूछते पूछते वहां भी पहुंच गये । लालाजी और मा0जी उतरे और धर्मशाला मे चले गये । वैसे ये धर्मशाला बिलकुल नयी बनी हुई लग रही थी और पत्थर बाहर तक दिखाई दे रहा था सो उससे तो बहुत बढिया थी पर मेरा धर्मशाला में रूकने का मन नही था । सो मै साथ में नही गया गाडी में ही बैठा रहा । थोडी देर में दोनो आये जोर जोर से बोलते हुए । मैने पूछा क्या बात हुई तो लालाजी बोले कि हमारी धर्मशालाओ को देखोगे तो आपकी राय बदल जायेगी पर एक ही दिक्कत है कि हमारे यहां सबके लिये खुली नही होती धर्मशाला केवल और केवल जैन लोगो के लिये ही होती है । तो मैने कहा कि फिर क्या बात है हम कहीं और रूक जायेंगे आस पास में ही तो वो बोले कि नही बात ये नही है ऐसा भी नही है कि हम आपको अलग भेज दें और खुद यहां रहे पर मा0 जी ने सब गडबड कर दिया । मैने पूछा क्या गडबड कर दिया तो बोले कि हमारे यहां अभिवादन में जय जिनेन्द्र बोलते हैं मैने किया तो मा0 जी ने भी जोर से बोल दिया राम राम जी बस फिर क्या था धर्मशाला वालो को खूब कहा कि हम जैन हैं और भी कई बात बताई पर उन्हे यकीन ही नही हुआ । मुझे बडी हंसी आ रही थी कि जाट खोपडी तिरछे तो चलते ही नही सीधे ही चलना जानते हैं । मा0 जी को क्या पता भाई कि जय जिनेन्द्र बोलना है उन्हे तो सीधी राम राम आवे तो वही कर दी । बहुत देर तक हम सबने इस पर ठहाके लगाये फिर मैने पूछा कि अब क्या करना है होटल देखें कि अभी और हसरत है तो लालाजी बोले कि उदयपुर बहुत बडा शहर है और हमारी यहां कई धर्मशाला और स्थानक होंगे । मैने कहा कि रहने दो क्यों लालच में पड रहे हो यहां अच्छे और सस्ते होटल भी मिल जायेंगे । दूसरी बात हम तीनो परिवारो ने तय कर लिया था कि हम अलग अलग कमरे ही लेंगे जब तक की कोई ज्यादा मजबूरी ना हो । तो जब किसी होटल वाले से तीन कमरे लेंगे तो डिस्काउंट तो होगा ही थोडा बहुत । पर लालाजी तो अड गये कि आप एक बार देख तो लो फिर अगर पसंद ना आये तो आप आगे से मत रहना । जब संयुक्त परिवार में रहते हैं तो एक दूसरे की माननी भी पडती है नही तो घर नही चलता सेा गठबंधन धर्म निभाने के लिये हम चुपचाप गाडी में बैठ लिये । दूसरी एक वजह ये भी थी कि लालाजी को घर से चलते ही 5—5 हजार रूपये हमने दे दिये थे और पगडी बांध दी थी । मतलब मुखिया बना दिया था कि कोई भी संयुक्त का खर्चा हो तो करते रहना और जब पैसे चाहियें बता देना । तो लालाजी ने फिर कईयो से मालूम किया और ड्राइवर को पूछने को कहकर अपने आप भी अगली सीट पर बैठकर पूछते पूछते एक जगह पहुंचे जहां जैन धर्मशाला थी ये जगह थी हाथी पोल और और धर्मशाला या स्थानक थी श्री श्वेताम्बर जैन महासभा । देखने में तो ये धर्मशाला या स्थानक ऐसे ही लगेंगे जैसे कि आम जन के लिये हों बाहर लिखा था कि रहने और खाने की सुविधा उपलब्ध है पर असल में ये केवल जैन धर्म के मानने वालो के लिये है तो इस बार धर्मशाला में मै गया और मैने राम राम नही की । लालाजी ने अपनी जय जिनेन्द्र करके तीन कमरे मांगे उन्होने नाम पता नोट करके तीन कमरे दूसरी मंजिल पर हमें दे दिये । हमारे बारे में लालाजी ने बताया कि परिवार ही है हमारा । दूसरे वहां पर तीन कमरो की रसीद अलग अलग नही एक ही कटी । कमरे बडे अच्छे ,साफ सुथरे और बडे थे । कूलर लगे थे और किराया था 200 रूपसे प्रति कमरा ।इस यात्रा में मैने जैन धर्म के बारे में बहुत कुछ सीखा । सबसे पहले तो आपको बता दूं कि जैन धर्म में जैसे हम लोग गुरूओ को सफेद वस्त्र पहने देखते है और साथ ही आपने उनके मुंह पर भी सफेद कपडा देखा होगा वो इसलिये होता है कि कहीं जाने अंजाने बात करते वक्त कोई मक्खी मच्छर या ऐसे परजीवी जो हमें दिखाई भी नही देते मुंह में ना चले जायें गलती से भी । ऐसे ही धर्मशाला की सभी पानी की टोंटियो के मुंह पर भी कपडा बंधा था जिसमें को पानी छनकर बाहर आता था । जैन धर्म में जीव हत्या को बडा पाप माना जाता है इसलिये शाम के समय अंधेरा होने के बाद तो खाना भी नही खाया जाता । इस नियम को जो मान सके मानता हैं । लालाजी तो लहसुन तो क्या प्याज भी नही खाते थे वैसे बाहर जाकर मै मानता हूं कि ऐसा नियम मुश्किल हो सकता है पर वो बडे पक्के थे अगर कहीं पहले पूछने पर पता चला कि प्याज डली है सब्जी में तो केवल दही से रोटी खा लेते थे दोनो आदमी । जैन धर्म की ज्यादातर धर्मशालाओ में खाना भी मिलता है और वो भी बडा शुद्ध पर सात्विक यानि की लहसुन प्याज और ज्यादा मिर्च भी नही । कई चीजे तो नयी खाने को मिली इस यात्रा में । पर खाना मिलने की दो शर्ते थी कि एक तो आपको दो तीन घंटे पहले बताना पडता है खाना खाने के लिये और दूसरी वही कि शाम को अंधेरे के बाद खाना नही मिलता तो उस दिन हम काफी लेट हो चुके थे और धर्मशाला में खाना नही मिलना था सो बाहर ढूंढना शुरू किया तो रोड पर ही दूसरी मंजिल पर एक राजस्थानी होटल था जहां बहुत ही बढिया खाना 40 रू थाली में मिला और आप यकीन मानिये इतना बढिया खाना था कि जब तक हम उदयपुर में रहे खाना हमने वहीं खाया । दूसरी मंजिल पर होने के बावजूद भी वहां भीड इतनी थी कि कई बार तो इंतजार करना पडता था क्योंकि उसके पास जगह कम थी ।खाना खा पी कर हम होटल मे आये तो विचार विमर्श शुरू हुआ कि आगे क्या करना है । 24 घंटे में हम तीन जगहे पुष्कर , अजमेर और चित्तौड घूमते हुए उदयपुर पहुचे थे । रात को गाडी में नींद कम आयी थी और दिन में घूमने के कारण सबको नींद आ रही थी । सुबह या तो उदयपुर शहर घूमना था या श्रीनाथ जी जाना था तो निर्णय ये हुआ कि कल श्रीनाथ जी जो कि ज्यादा दूर नही है और रास्ते में ही एकलिंग जी पडता है दोनो को देख आते हैं और सुबह सोकर आराम से उठेंगे । क्योंकि उसके बाद अगले दिन उदयपुर को सुबह सवेरे देखने निकलेंगे । तो सब सेा गये और सुबह 8 बजे उठकर 10 बजे तक तैयार होकर नाश्ता करके चल दिये श्रीनाथ जी की ओर ।
नाथद्धारा के जो पुजारी हैं उनके द्धारा ऐसी कथा यहां के बारे में बताई जाती है कि एक बार ब्रज में गोवर्धन पर्वत पर एक गांववाला जा रहा था तो उसे एक बांया हाथ पर्वत में से निकला हुआ दिखाई दिया । गांव में खबर फैल गई कि जिस वाम भुजा से श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर ब्रजवासियो की रक्षा की थी उसी भुजा के दर्शन प्रभु ने दिये हैं 70 वर्षो तक इसी रूप में उनकी पूजा होती रही । उसके बाद एक गांववासी ने देखा कि एक गाय नित्य भुजा के पास जाकर खडी हो जाती और उसके थनो से स्वयं दूध निकलकर भुजा के पास बने छेद में जाने लगता । उसने झांककर देखा तो श्री जी का मुख उसे दिखाई दिया । प्रभु ने उसे दर्शन दिये और पूर्ण रूप में बाहर आ गये । इसके बाद प्रभु का मंदिर बनवाया गया और पूजा अर्चना विधिवत रूप में होने लगी । 170 वर्ष तक ब्रज में प्रभु की पूजा होती रही और यह विख्यात मंदिर बन गया । पर इसी समय औरंगजेब का शासन आ गया और उसने हिंदू मंदिरो को नष्ट भ्रष्ट करना शुरू कर दिया । मंदिर के पुजारी और श्रीनाथ जी के कुछ पक्के भक्त ब्रज से उनके स्वरूप को चुपचाप निकालकर चल दिये । बाद में औरंगजेब ने मंदिर को तुडवा दिया पर श्रीनाथ जी को वहां से निकाला जा चुका था । करीब ढाई साल तक श्रीनाथ जी के भक्त उन्हे लेकर गुपचुप तरीके से दर दर भटकते घूमते रहे पर किसी भी राजा ने औरंगजेब के डर के कारण उन्हे शरण नही दी । प्रभु के भक्तो ने बहुत छिपाकर प्रभु के विग्रह को रखा और जहां मौका मिला वहां वहां उनकी पूजा अर्चना की । जहां भी वे कुछ दिन तक रूक और उनकी विशेष पूजा हुई उन जगहो को चरण चौकी कहा जाता है और वे जगहे आज भी हैं । मेवाड पहुचने पर वहां के शक्तिशाली राजा राजसिंह ने उनको आश्रय दिया और सिंहाड नाम के गांव में राजा की हवेली में प्रभु की स्थापना की गई । वर्तमान में यही हवेली प्रभु का मंदिर है । पुष्टिमार्ग संप्रदाय जिसकी स्थापना जगतगुरू वल्लभाचार्य ने की का यह मंदिर मुख्य केंद्र है ।
श्रीनाथ जी का ये मंदिर राजस्थान के राजसमंद जिले में है और उदयपुर से लगभग 50 किमी0 की दूरी पर है सुबह आराम से उठकर हम चले और सीधे नाथद्धारा जाकर ही रूके । रास्ते के नजारे बडे बढिया हैं । गांव में घुसते ही पर्ची कट गई । गाडी खडी करके हम चल दिये मंदिर के रास्ते की ओर । गाडी काफी दूर खडी करनी पडी थी और बाजार में कई रास्ते थे जिनमें से कई पर चौराहे थे दो तीन जगह पूछना पडा । वहां हमें एक बात बडी रोचक दिखी कि नाथद्धारा में हमने प्रसाद चढाने के लिये खरीदना सोचा तो मिला ही नही । वहां किसी भी दुकानदार को नया या फ्रेश प्रसाद बेचना मना है वे केवल श्रीनाथ जी को जो भोग लगाये जाते हैं उसे ही बेच सकते है वो भी घर ले जाने के लिये । ऐसा इसलिये क्योकि श्रीनाथ जी जो स्थापित हैं वो राजा की निजी हवेली में स्थापित हैं और वो उन्हे अपने निजी भगवान मानते हैं । पहले तो किसी को दर्शन करने की भी आज्ञा नही थी फिर अदालत के आदेश पर सार्वजनिक दर्शन शुरू हुए । पर प्रसाद चढाने का अधिकार उन राजा के वंशजो ने किसी को आज भी नही दिया है । इसलिये बाजारो में कहीं भी किसी भी तरह का प्रसाद नही बिकता बस आप नकद पैसे दान कर सकते हो । बाजार में जो बिकता है वो प्रभु को समय समय पर लगाया जाने वाला भोग है
मंदिर में प्रभु के आठ प्रमुख दर्शन हैं मंगला दर्शन जो कि दिन के सबसे पहले दर्शन हैं उसके बाद श्रंगार दर्शन जो कि मंगला दर्शन के एक घंटे बाद होते हैं इसमें श्रीनाथ जी को मेवे अर्पण किये जाते हैं और वस्त्र बदले जाते हैं । इसके बाद ग्वाल दर्शन होते है जिसमें श्रीनाथ जी गायो को चराने लेकर जाते हैं मिठाई का भोग लगाया जाता है चौथे दर्शन राजभोग दर्शन हैं जिसमें श्रीनाथ जी को भोजन अर्पण किया जाता है और आरती की जाती है । इसके बाद उत्थापन दर्शन हैं जो श्रीनाथ जी के दोपहर की नींद से जागने के बाद होते हैं छठे दर्शन भोग दर्शन हैं इसमें श्रीनाथ जी को हल्का भोजन अर्पण किया जाता है शाम को जब श्रीनाथ जी गायो को घर ले आते हैं तो संध्या दर्शन होते हैं और इसके बाद अंतिम और आठवे दर्शन होते हैं शयन दर्शन जिसमें प्रभू सोने के लिये जाते हैं इन आठो दर्शनो के बीच में जो समय होता है उसमें लोग अपने जूते चप्पल और मोबाईल वगैरा बाहर बने क्लाक रूम में जमा करा देते हैं और लाइन में लग जाते है फिर हवेली के बडे से गेट खुलते है और एक बडे से खुले हाल में पहुंचकर आदमी और औरतो की अलग अलग लाइन लग जाती है बस यहीं हम सबको परेशानी बन जाती है जब भी कहीं ऐसा होता है तो सबसे पहले चिंता हो जाती है कि इतनी भीड में जब बाहर निकलेंगे तो कैसे एक दूसरे को मिलेंगे इसलिये तय किया कि जहां मोबाइल जमा किये है वहीं पर आकर खडे होंगे सब दर्शनो के लिये जो भीड खडी रहती है पहले तो गेट खुलते ही धक्का मुक्की शुरू हो जाती है दर्शन के लिये उसके बाद मुश्किल से जैसे ही दर्शन होते है तो बाहर निकालना शुरू कर देते हैं कभी कभी तो सोचता हूं कि क्या हम इतनी दूर से जानवरो की तरह धक्के खाने के लिये ही यहां आये थे पर दूसरे ही पल दिमाग में आता है कि प्रभु के दर्शन इतनी आसानी से मिलते तो सब ना कर लेते । हमने तो धक्के खा खाकर कर लिये पर बहुतो ने न देखा है ना देख पायेंगे । बस इस फिलासफी पर आकर सब खत्म
दर्शन करने के बाद हमें वहां लगा नही कि हमें वहां कुछ और देखने को मिलेगा सो वापिस चल दिये उदयपुर की ओर और उदयपुर से 22 किमी0 पहले हाइवे न0 8 पर पर एकलिंग जी का मंदिर पडा । एकलिंग जी का मंदिर राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिरो में से एक है ये कैलाशपुरी कस्बे में है पर मंदिर के नाम पर ही इसका नाम एकलिंग जी प्रसिद्ध हो गया है । दर्शन का समय श्री एकलिंग जी कैलाशपुरी
सुबह 4—30 से 6—30 तक
10—30 से 1—30 तक
सांच 5—30 से 8 तक
भगवान शिव का ये मंदिर जिसका निर्माण बप्पा रावल द्धारा कराया गया था । मंदिर स्थापत्य कला का एक बेमिसाल उदाहरण है । मंदिर में अंदर हाल बना है जिसे मंडप कहते हैं । घुसते ही नंदी की प्रतिमा आती है । प्रसाद हमने मंदिर के बाहर से ही ले लिया था और देशी अंदाज में जूते चप्पल भी वहीं निकाल दिये थे प्रसाद वाले के यहां । अंदर फूल मालाए बिक रही थी जो वहां की लोकल औरते फूलो की बना रही थी । मंदिर में काले पत्थर की शिवजी की चार मुंह का लिंग है जिसकी उंचाई लगभग 50 फीट है मंदिर परिसर में छोटे बडे और भी कई सारे मंदिर हैं काफी देर घूमकर हम बाहर आये और उदयपुर के लिये चल पडे
एक फोटो बाहर चलने से पहले ले ली थी मंदिर की वो ही लगा दी है ।
इस दिन हमने पूरे दिन कैमरे का लुत्फ नही उठाया क्योंकि दोनो जगह कैमरा मना था और दूरी बहुत कम थी पर अगले लेख में उदयपुर को कैमरे की नजरो से भी देखियेगा
अगले लेख में उदयपुर शहर की यात्रा ................
आपको ये लेख कैसा लगा जरूर बताइयेगा ..............
श्री श्वेताम्बर जैन धर्मशाला |
किसी ने बताया कि यहां तो सबसे बडी एक ही धर्मशाला है किसी सेठ जी के नाम पर थी रास्ते में ही पडी । हमने गाडी खडी कर ली पूछने के लिये मै और मा0 जी उतर गये । मुझे अब उस धर्मशाला का नाम तो याद नही है क्योंकि मैने आपको पहले ही बताया है कि मुझे होटलो या धर्मशालाओ के नाम याद नही रहते हैं पर उदयपुर की वो काफी बडी धर्मशाला थी और कई तो गाडिया बडी बसे वहां खडी थी जो तीर्थ यात्रियो को बडी संख्या में लेकर आती हैं और जिनके साथ खाना बनाने वाले भी साथ में ही होते हैं । तो उस धर्मशाला में ऐसा नजारा था कि जैसे मेलो में होता है भंडारो जैसे वहां खाने बन रहे थे । कई कमरे तो उसमें ऐसे थे जो ऐसे लग रहे थे कि इसमें यात्री नही स्थाई निवासी रहते हों । किराया तो बहुत सस्ता था हमने कहा कमरा दिखा दो तो आफिस पर मौजूद आदमी बोला कि अपने आप देख आओ और उसने एक कमरे का नंबर बता दिया । इस धर्मशाला में गेट में घुसने के बाद में तीन ओर बिल्डिंग थी तीन या चार मंजिली तो हम दूसरी मंजिल पर जिस कमरे को उसने बताया था उसमें पहुंच गये । कमरा काफी बडा था और उसमें एक लोहे का पलंग पडा हुआ था बस एक पलंग । लैट्रिन बाथरूम कामन थे । हम फिर नीचे उतरकर आये और आफिस में मौजूद आदमी से पूछा कि हम तो काफी आदमी हैं पर कमरे में तो पलंग एक ही है तो उसने कहा कि बाकी आदमी नीचे सो जाना तब मैने पूछा कि कपडो का कैसे होगा तो बोला कि पास में दुकान है किराये पर मिल जायेगा जो चाहोगे । हमने अपने कान ऐंठे कि बस हो गई धर्मशाला । अकेले तो कैसे भी लेट जायें पर जब परिवार साथ में हो तो फिर तो ठीक ठाक जगह देखनी पडेगी । बाहर गाडी के पास आये तो तब तक लालाजी जो कि गाडी के पास ही थे उन्होने एक अपनी धर्मशाला का पता पूछ लिया था वो पास ही में थी गाडी में बैठकर पूछते पूछते वहां भी पहुंच गये । लालाजी और मा0जी उतरे और धर्मशाला मे चले गये । वैसे ये धर्मशाला बिलकुल नयी बनी हुई लग रही थी और पत्थर बाहर तक दिखाई दे रहा था सो उससे तो बहुत बढिया थी पर मेरा धर्मशाला में रूकने का मन नही था । सो मै साथ में नही गया गाडी में ही बैठा रहा । थोडी देर में दोनो आये जोर जोर से बोलते हुए । मैने पूछा क्या बात हुई तो लालाजी बोले कि हमारी धर्मशालाओ को देखोगे तो आपकी राय बदल जायेगी पर एक ही दिक्कत है कि हमारे यहां सबके लिये खुली नही होती धर्मशाला केवल और केवल जैन लोगो के लिये ही होती है । तो मैने कहा कि फिर क्या बात है हम कहीं और रूक जायेंगे आस पास में ही तो वो बोले कि नही बात ये नही है ऐसा भी नही है कि हम आपको अलग भेज दें और खुद यहां रहे पर मा0 जी ने सब गडबड कर दिया । मैने पूछा क्या गडबड कर दिया तो बोले कि हमारे यहां अभिवादन में जय जिनेन्द्र बोलते हैं मैने किया तो मा0 जी ने भी जोर से बोल दिया राम राम जी बस फिर क्या था धर्मशाला वालो को खूब कहा कि हम जैन हैं और भी कई बात बताई पर उन्हे यकीन ही नही हुआ । मुझे बडी हंसी आ रही थी कि जाट खोपडी तिरछे तो चलते ही नही सीधे ही चलना जानते हैं । मा0 जी को क्या पता भाई कि जय जिनेन्द्र बोलना है उन्हे तो सीधी राम राम आवे तो वही कर दी । बहुत देर तक हम सबने इस पर ठहाके लगाये फिर मैने पूछा कि अब क्या करना है होटल देखें कि अभी और हसरत है तो लालाजी बोले कि उदयपुर बहुत बडा शहर है और हमारी यहां कई धर्मशाला और स्थानक होंगे । मैने कहा कि रहने दो क्यों लालच में पड रहे हो यहां अच्छे और सस्ते होटल भी मिल जायेंगे । दूसरी बात हम तीनो परिवारो ने तय कर लिया था कि हम अलग अलग कमरे ही लेंगे जब तक की कोई ज्यादा मजबूरी ना हो । तो जब किसी होटल वाले से तीन कमरे लेंगे तो डिस्काउंट तो होगा ही थोडा बहुत । पर लालाजी तो अड गये कि आप एक बार देख तो लो फिर अगर पसंद ना आये तो आप आगे से मत रहना । जब संयुक्त परिवार में रहते हैं तो एक दूसरे की माननी भी पडती है नही तो घर नही चलता सेा गठबंधन धर्म निभाने के लिये हम चुपचाप गाडी में बैठ लिये । दूसरी एक वजह ये भी थी कि लालाजी को घर से चलते ही 5—5 हजार रूपये हमने दे दिये थे और पगडी बांध दी थी । मतलब मुखिया बना दिया था कि कोई भी संयुक्त का खर्चा हो तो करते रहना और जब पैसे चाहियें बता देना । तो लालाजी ने फिर कईयो से मालूम किया और ड्राइवर को पूछने को कहकर अपने आप भी अगली सीट पर बैठकर पूछते पूछते एक जगह पहुंचे जहां जैन धर्मशाला थी ये जगह थी हाथी पोल और और धर्मशाला या स्थानक थी श्री श्वेताम्बर जैन महासभा । देखने में तो ये धर्मशाला या स्थानक ऐसे ही लगेंगे जैसे कि आम जन के लिये हों बाहर लिखा था कि रहने और खाने की सुविधा उपलब्ध है पर असल में ये केवल जैन धर्म के मानने वालो के लिये है तो इस बार धर्मशाला में मै गया और मैने राम राम नही की । लालाजी ने अपनी जय जिनेन्द्र करके तीन कमरे मांगे उन्होने नाम पता नोट करके तीन कमरे दूसरी मंजिल पर हमें दे दिये । हमारे बारे में लालाजी ने बताया कि परिवार ही है हमारा । दूसरे वहां पर तीन कमरो की रसीद अलग अलग नही एक ही कटी । कमरे बडे अच्छे ,साफ सुथरे और बडे थे । कूलर लगे थे और किराया था 200 रूपसे प्रति कमरा ।इस यात्रा में मैने जैन धर्म के बारे में बहुत कुछ सीखा । सबसे पहले तो आपको बता दूं कि जैन धर्म में जैसे हम लोग गुरूओ को सफेद वस्त्र पहने देखते है और साथ ही आपने उनके मुंह पर भी सफेद कपडा देखा होगा वो इसलिये होता है कि कहीं जाने अंजाने बात करते वक्त कोई मक्खी मच्छर या ऐसे परजीवी जो हमें दिखाई भी नही देते मुंह में ना चले जायें गलती से भी । ऐसे ही धर्मशाला की सभी पानी की टोंटियो के मुंह पर भी कपडा बंधा था जिसमें को पानी छनकर बाहर आता था । जैन धर्म में जीव हत्या को बडा पाप माना जाता है इसलिये शाम के समय अंधेरा होने के बाद तो खाना भी नही खाया जाता । इस नियम को जो मान सके मानता हैं । लालाजी तो लहसुन तो क्या प्याज भी नही खाते थे वैसे बाहर जाकर मै मानता हूं कि ऐसा नियम मुश्किल हो सकता है पर वो बडे पक्के थे अगर कहीं पहले पूछने पर पता चला कि प्याज डली है सब्जी में तो केवल दही से रोटी खा लेते थे दोनो आदमी । जैन धर्म की ज्यादातर धर्मशालाओ में खाना भी मिलता है और वो भी बडा शुद्ध पर सात्विक यानि की लहसुन प्याज और ज्यादा मिर्च भी नही । कई चीजे तो नयी खाने को मिली इस यात्रा में । पर खाना मिलने की दो शर्ते थी कि एक तो आपको दो तीन घंटे पहले बताना पडता है खाना खाने के लिये और दूसरी वही कि शाम को अंधेरे के बाद खाना नही मिलता तो उस दिन हम काफी लेट हो चुके थे और धर्मशाला में खाना नही मिलना था सो बाहर ढूंढना शुरू किया तो रोड पर ही दूसरी मंजिल पर एक राजस्थानी होटल था जहां बहुत ही बढिया खाना 40 रू थाली में मिला और आप यकीन मानिये इतना बढिया खाना था कि जब तक हम उदयपुर में रहे खाना हमने वहीं खाया । दूसरी मंजिल पर होने के बावजूद भी वहां भीड इतनी थी कि कई बार तो इंतजार करना पडता था क्योंकि उसके पास जगह कम थी ।खाना खा पी कर हम होटल मे आये तो विचार विमर्श शुरू हुआ कि आगे क्या करना है । 24 घंटे में हम तीन जगहे पुष्कर , अजमेर और चित्तौड घूमते हुए उदयपुर पहुचे थे । रात को गाडी में नींद कम आयी थी और दिन में घूमने के कारण सबको नींद आ रही थी । सुबह या तो उदयपुर शहर घूमना था या श्रीनाथ जी जाना था तो निर्णय ये हुआ कि कल श्रीनाथ जी जो कि ज्यादा दूर नही है और रास्ते में ही एकलिंग जी पडता है दोनो को देख आते हैं और सुबह सोकर आराम से उठेंगे । क्योंकि उसके बाद अगले दिन उदयपुर को सुबह सवेरे देखने निकलेंगे । तो सब सेा गये और सुबह 8 बजे उठकर 10 बजे तक तैयार होकर नाश्ता करके चल दिये श्रीनाथ जी की ओर ।
उदयपुर सिटी पैलेस से |
कल्लू महाराज और गाइड महाराज |
एकलिंग जी के मंदिर का बाहरी दृश्य |
सिटी पैलेस का एक नजारा अगली पोस्ट में आप पढेंगे |
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