हेमकुन्ट साहिब घांघरिया में एक पर्यटक आफिस भी था हम लोग भी ऐसे ही देखने के लिये घुस गये । वहां एक नक्शा लगा था हेमकुन्ट साहिब का और उसके रास...
हेमकुन्ट साहिब घांघरिया में एक पर्यटक आफिस भी था हम लोग भी ऐसे ही देखने के लिये घुस गये । वहां एक नक्शा लगा था हेमकुन्ट साहिब का और उसके रास्ते का । किसी फोटोग्राफर ने हेमकुन्ट साहिब के सामने वाले पहाड से क्या गजब का फोटो लिया था ।50 रू का फोटा सुनकर लिया ही नही पर हां उसका फोटू जरूर खींच लिया । आप भी देख लो कैमरे की रोशनी लगने की वजह से थोडा बढिया नही आया । उस फोटू को देखकर हमारी तो सांसे ही रूक गई । सीधी खडी चढाई 6 किलोमीटर की । रास्ता इतना खडा है कि आपको 1100 मी0 लगभग 3500 फिट की चढाई गोविन्द धाम यानि घांघरिया से 6 किलोमीटर में चढनी पडती है अब आप अन्दाजा लगा लो
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दो साथियो की तो वहीं पर मना हो गई । क्या जरूरत है वहां जाने की । सरदार लोग तो अपने गुरूद्धारे की वजह से जाते हैं हमें क्या करना है । लेकिन मैने समझाया कि भाई रोज रोज ऐसी जगहो पर आना नही होता है । एक बात बताओ क्या तुम दोबारा कभी केवल हेमकुन्ट देखने के लिये 19 किलोमीटर और दो दिन लगाओगे । आज तो केवल एक दिन लगेगा क्योंकि गुरूद्धारा केवल दो बजे तक ही खुलता है दो बजे अरदास करने के बाद बंद हो जाता है दो बजे के बाद गुरूद्धारे वाली जगह पर आक्सीजन की कमी भी हो जाती है । उसके बाद दो बजे से हम वापिस घांघरिया जा सकते हैं । और उतरने में चढाई से कम समय लगता है तो अगर हमें पूरा दिन चढाई करने में लगा था तो उतरने में चार या पांच घंटे लगेंगे । इसलिये हो सकता है कि हम सात बजे तक वापिस गोविन्द घाट पहुंच जायें तो वहां से बद्रीनाथ जी थोडा ही दूर है जाते ही बाइक उठाऐंगे और एक घंटे में बद्रीनाथ । रात को कमरा लेकर सोयेंगे और कल का दिन वही घूमेंगे ।
होटल से निकले और चल दिये अपना सामान उठाकर हेमकुंट वाले रास्ते पर । छोटी सी मार्किट भी है यहां पर जिसमें वो ही पहाडो के सब शहरो की तरह खाल उतारने का सामान मिलता है । खाल उतारने का इसलिये क्योंकि चढाई भी ना हो पर जो सामान हमारे यहां दस रूपये का मिलता है वो वहां बीस और कहीं कहीं तो ज्यादा का भी मिलता है । और उपर से खराब जल्दी हो जाता है । औरतो और बच्चे जिसके साथ में हो समझो उसके तो इतने पैसे घूमने मे खर्च नही होते जितने शापिंग में हो जाते हैं । कहीं पर मिसेज कहती हैं कि मैने दुकानदार को लूट लिया और कहीं पर कहती हैं कि दुकानदार ने मुझे लूट लिया । पर घर जायेंगे तो सब पूछेंगे कि हमारे लिये क्या लाये तो सबके लिये कुछ ना कुछ लेना है । किसी का नाम चावल के दाने पर लिखवाना है और किसी के लिये पेड का कटा तना सा लेना है और हां शाल साडी सूट तो वहीं जाके याद आते हैं वहीं फैक्ट्री में बनते हैं ना इसलिये सस्ते होते हैं । मजाक कर रहा था सारी चीजो में से ज्यादातर दिल्ली से बनी हुई या जाने वाली होती है। मै इसलिये बता रहा हूं आपको क्योंकि भुक्तभोगी हूं
घोडो का एक स्टैन्ड सा बना है हेमकुन्ट साहिब के रास्ते पर । हम जब पहुंचे तो ज्यादातर घोडे जा चुके थे क्योंकि और हम तो थके हुए बडी मुश्किल से उठे थे । आशु का तो विचार वापिस नीचे की ओर चलने का था ये तो उठने के बाद ही तय हुआ कि हेमकुंट साहिब ही जायेंगे कोई भी व्यक्ति सुबह सवेरे गोविन्द घाट से चलकर गुरूद्धारे नही पहुंच सकता । अगर कोई बहुत चलने वाला हो तो भी उसे वहां तक पहुंचने में दो बज ही जायेंगे और फिर गुरूद्धारे में आखिरी अरदास होकर बन्द हो जायेगा । वहां कोई नही रहता उसके बाद । कुछ लोग तो गोविन्द घाट से रात को ही सफर करते हैं ताकि अगले दिन ही सुबह तक घांघरिया और फिर गुरूद्धारे पहुंच जायें । रात को सफर करने वालो के लिये हालांकि रास्ते में लाइट की कोई व्यवस्था नही है रात को सफर करने वाले सब अपने साथ टार्च और खाने का सामान गोविन्द घाट से ही लेकर चलते हैं । मै तो कायल हो गया उनकी इतनी श्रद्धा देखकर । उनकी श्रद्धा का कारण है इस जगह की ऐतिहासिक महत्ता यहां पर जो गुरूद्धारा बना है उसी का नाम श्री हेमकुन्ट साहिब जी है । वैसे इसका सही नाम कुछ लोगो ने बताया हेमकुन्ड जिसका मतलब हुआ हिम का बर्फ और कुन्ड मतलब एक गढढा तो बर्फ का कुन्ड । और बिलकुल ऐसी ही है ये जगह सात बर्फ के पहाडो से घिरा हुआ गुरूद्धारा और उन बर्फ के पहाडो से पिघलकर आती हुई बर्फ के पानी को समेटती झील
जो लोग रात को सफर नही करते उन्हे दो दिन लगते हैं दर्शन करने को क्योंकि कितनी भी सवेरे चलें गोविन्दघाट से घांघरिया तक पहुंचने में इतना वक्त लग जाता है कि तब तक दो बज जाते हैं । इसलिये उस दिन और रातघांघरिया में रूककर अगली सुबह सवेरे अंधेरे अंधेरे ही लोग गुरूद्धारे के लिये चल देते हैं । हमें जो घोडे मिले वे तो सुबह से एक चक्कर लगा कर भी आये थे पैदल जाने में लगभग तीन घंटे और वापसी में डेढ घ्ंटा लग जाता है । अगर घोडो से जाओ तो एक घंटा जाने में और एक घंटा आने में लगता है। तो वहां उस स्टेंड पर मुश्किल से दस बारह घोडे खडे थे । उन्हे घोडे कहना ठीक नही होगा क्योंकि वहां मुश्किल से एक दो घोडे मिलते हैं । ज्यादातर खच्चर होते हैं । खच्चर की एक नस्ल जो होती है उसकी खासियत ये होती है कि वो गधे की तरह बोझ उठाने में बढिया होते हैं । पहाडो में जितनी भी जगह मै गया ज्यादातर वे ही मिलते है। उनसे बात करने से पता चलता है कि ज्यादातर किसी ठेकेदार के होते हैं और सीजन शुरू होते ही आसपास के क्षेत्र से बेरोजगार लोग नौकरी के लिये इन ठेकेदारो के पास पहुंच जाते हैं । ये घोडो के साथ साथ चलते हैं । नौकरी तो इतनी खास नही मिलती जितना लालच इन्हे बख्शीश का रहता है आदमी को धार्मिक यात्रा पर आने के कारण और फायदे इतने गिनाते है कि बन्दे को लगता है अगर तू इन्हे नाराज करेगा तो हो सकता है कि तुझे यात्रा का लाभ ना मिले तो वो तय करने के बाद भी दस बीस रूपये इनको दे ही देता है एक बात और ये घोडे वाले अकेले लडको को इतना महत्व नही देते जितना परिवार को और उससे भी ज्यादा अगर कोई नया नया शादीशुदा जोडा हो उसे देते हैं
तो मोलभाव शुरू हो गया । शुरू में तो इतने रूपये बोल दिये उन्होने कि लगा कि आज प्रोग्राम रदद ही होगा शायद । पर होते होते 400 रू प्रति आदमी के हिसाब से सौदा हो गया । मै घोडो पर बैठने के पक्ष में नही रहता पर अगर आप यात्रा लम्बी कर रहे हों तो आपको अपनी एनर्जी बचा लेने में कोई बुराई नही है । कई यात्राओ में तो हमने उपर जाने के लिये केवल घोडा किया और वापस पैदल आये । बस एक ही परेशानी होती है अगर हम घोडे पर बैठे जा रहे हों और कोई वृद्ध आदमी या औरत जो पैदल चलकर जा रहा हो तो उसे देखकर शर्म आने लगती है । पर जब मै किसी व्यक्ति को पालकी पर चार आदमी के कंधे पर बैठकर जाते देखता हूं तो तब सोचता हूं कि हम ही भले है इस उम्र में यात्रा कर रहे है। लोग सोचते हैं कि यात्रा पर्यटन तब करो जब सब जिम्मेदारी समाप्त हो जाये यानी बुढापे में पर मेरी सोच है कि ये काम तो आदमी को जवानी में ही करना चाहिये । बुढापे में तो घर बैठकर ऐश करो दो घोडे तो हमें ठीक ठाक से मिले पर आशु और अंकित के घोडे या खच्चर जो भी थे बहुत हल्के थे । रास्ते में वो काम हुआ जिसकी उम्मीद नही थी । खडी चढाई और पगडन्डी का रास्ता । जानवर जानवर ही होता है उसके मुडने चढने पर आप कितना कंट्रोल लगा सकते हैं । उसी पर आते जाते घोडे और उसी पर आते जाते आदमी औरते रास्ते में पलट गये दोनो चोट लगने से बचे । आशु और जितेन्द्र हल्के फुल्के थे सो कूद गये । ये भी शुक्र रहा कि उस जगह बराबर में खाई नही थी उसके बाद वो दोनो घोडे पर नही बैठे । घोडे वाले ने बहुत कहा कि बैठो पर क्या मतलब । उन्हे कुछ पैसे दिये और दोनो चल दिये पैदल । ये दोनो ही पैदल नही चलना चाहते थे पर इन्हे ही चलना पडा । मौसम वहां अक्सर खराब ही रहता है । उस दिन भी बहुत खराब था । सर्दी के मारे हालत खराब थी । घोडेवाले भी 6 किलोमीटर के रास्ते में 1 ब्रेक लेते हैं ।यहां घोडे वाले जरूर रोकते हैं । चाय वगैरा पीने के लिये । वहां पर खाने में मैगी ही सबसे ज्यादा मिलता है या फिर कहीं एकाध जगह परांठे । चीजो के रेट सुन लो तो दम सूख जाये । इतनी महंगाई ! पर वे भी क्या करें बेचारे खाने कमाने को ही तो वहां पर पडे हैं । पन्नी का टैंट लगाये । सब कुछ अस्थायी है और उपर से ग्राम सभा की रसीद और टैक्स आदि । वहां आमदनी का जरिया यही है नही तो खेती तो वहां होती नही । इतनी खडी और मुश्किल चढाई है वहां की मै तो घोडो की भी हिम्मत मानता हूं । कई कई साल घोडे के छोटे बच्चे खाली साथ में आते जाते हैं ट्रेन्ड होने के लिये फिर उन पर सामान ढोया जाता है उसके बाद आदमियो के बैठने के लिये वो तैयार होते हैं
गुरूद्धारे पहुंचे तो बेहिसाब ठंड थी । कंपकंपी छूट रही थी क्योंकि हम जुलाई के महीने में गये थे और गर्म कपडे ज्यादा नही ले रहे थे इसलिये सबने जो कपडे बैग में ले रहे थे वे भी निकाल निकाल कर पहनने शुरू कर दिये । अंकित और आशु ने तो अपनी रात को ओढने की चादर भी निकाल कर लपेट ली । गुरूद्धारा श्री हेमकुंट साहिब में रूकने की कोई व्यवस्था नही है वहां तो आक्सीजन की कमी हो जाती है कई लोग जिन्हे सांस की समस्या है या कमजोर हैं वे तो पहले से ही आक्सीजन की एक बोतल सी आती है उसे लेकर चलते है । हमें तो जरूरत पडी नही खैर गुरूद्धारा पहुंचे तो रास्ते में मिलती ठंड और कोहरा और भी बढ गया था । विजिबिलटी यानी देखने की सीमा बहुत कम थी । बस सामने खडे आदमी को ही देख पा रहे थे । सबसे पहले देखा सरदार लोग तो कपडे निकाले और लगे डुबकी लगाने । हमारी तो हिम्मत नही हुई । हम तो लगे नजारा देखने । आ हा क्या नजारा था कुछ दिखाई ही नही दे रहा था । हा हा हा हा क्योंकि कोहरा ही इतना घना था हम भी गुरूद्धारे में गये सिर झुकाया और बाहर आ गये । उसके बाद पास ही में एक मन्दिर बना हुआ है । लक्ष्मण लोकपाल का मन्दिर । पहले तो देखकर अचरज हुआ । गुरूद्धारे के बिलकुल बराबर में । जैसा कि हमें वहां बताया गया कि दुनिया का एकमात्र लक्ष्मण लोकपाल का मन्दिर है । राम परिवार के मन्दिर तो सारी दुनिया में है लेकिन वहां केवल लक्ष्मण जी का है । तो उनके भी दर्शन किये और फिर से गुरूद्धारे के पास आये तो असली चीज के दर्शन हुए जी हां उस वक्त तो ठंड भी थी और भूख भी जोर की लगी थी पर क्या बात है जी गुरूद्धारे वालो की । एकमात्र वही जगह थी जहां बिना पैसे बिना पूछे एक बडा स्टील का गिलास भरकर चाय और कुछ खाने को भी था । मै भूल गया शायद खिचडी या दलिया था । लेकिन अंधे को क्या चाहिये दो आंखे । उस वक्त तो इतना अच्छा प्रसाद था वो कि आज तक उससे अच्छा प्रसाद नही मिला ।
ये थी वहां की सेवा घूमने को वहां काफी देर तक बैठे कि शायद अब थोडी देर में कोहरा छंट जाये पर एक घंटा वहां रहे पर कोहरा हटा ही नही ।थोडा बहुत उपर नीचे को चढकर भी देखा पर कुछ नही दिखा । अब क्या कर सकते थे मित्रो ने दबाव बनाया कि चलो अब भी चले तो वापिस गोविन्द घाट पहुंचकर बद्रीनाथ जा सकते हैं । तो वापिस घोडा स्टैंड पहुंचे तो देखा हमारे वहां पहुंचत ही हमारे दो घोडे वाले दौडकर आ गये । अब की बार रास्ते में दो बार घोडा बदला । बीच रास्ते से हम पैदल और आशु और अंकित बैठे । घांघरिया पहुंचने के बाद तुरंत वापिस चलना शुरू कर दिया । वापसी का रास्ता था । चढना जितना मुश्किल था । उतरना हमेशा उतना ही आसान लगता है पर यहीं गलती हो जाती है । अगर आपने भागना शुरू कर दिया तो पैर मुडने या बेकार होने की गुंजाइश ज्यादा रहती है । आशु और अंकित तो आधा घंटा पहले ही गोविन्द घाट पहुंच गये थे । सबसे लेट मै ही था । लेकिन उनकी मेहनत और जल्दी दौडने का कोई फायदा नही हुआ क्योंकि नीचे गोविन्द घाट पहुंचते ही बाइक उठाकर जैसे ही हमने चलने की सोची तो पता चला कि आगे लैंड स्लाइडिंग हो गई है और रास्ता बन्द है । अब क्या करें । यहीं रूकना पडेगा पर एक परेशानी और बढ गई थी । जब घर से चले थे तो ज्यादा पैसे जेब में लेकर नही चले थे । बस नेट पर पता कर लिया था कि पैट्रोल पम्प की सुविधा बद्रीनाथ तक थी और बद्रीनाथ में एटीम भी हैं सो सबने कम पैसे रखे थे । पहले विचार बद्रीनाथ जाने का था पर रास्ते में गोविन्द घाट जाकर इरादा हाथ के हाथ बदल गया सोचा जो पहले पड गया उसे ही देखते चलो । सेा पहुंच गये पर तीसरा दिन था और पैसे हमारे अनुमान से ज्यादा खर्च हो चुके थे । पहले पीपलकोटी को रात का रूकने का खर्चा और दो दिन पहले का खर्चा होने तक किसी ने भी एटीएम से पैसे नही निकाले थे 1200 रू होटल के और 1000 घोडेा वाले के अलावा 2000 के लगभग खाने पीने टिकट आदि में खर्च हो गये थे । सब खर्चा संयुक्त खाते में चल रहा था । अंकित को इंचार्ज बनाया हुआ था । उसको प्रत्येक ने 1000 रू उसको पीपलकोटी से दे दिये थे । जेबे टटोली जानी शुरू हुई । तो कुल जमा सारो की जेब से 700 रू के लगभग निकले । चलो कुछ तो है । गोविन्द घाट में कोई एटीम नही था । सो अब तो बद्रीनाथ से ही पैसे निकलेंगे । इसलिये कमरा ढूंढना शुरू किया तो काफी देर में 400 रू में एक 4 बेड का रूम मिला जो अटैच नही था । हमारे बजट में आ रहा था सो कर लिया । अब खाने का नम्बर आया । 50 रू थाली के हिसाब से खाना भी मिल गया । जेब में रूपये बचे केवल सौ । सोचा कोई बात नही सुबह एक घंटे का रास्ता है जाते ही निकाल लेंगे एटीएम से पर हमें क्या पता था कि क्या परेशानी होने वाली है ।आगे का वृतांत बद्रीनाथ में ...........................
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चल दिये खच्चरो पर |
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गुरूद्धारा साहिब के पास |
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पवित्र झील |
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घोडो से उतारने की जगह |
गुरूद्धारा श्री हेमकुंट साहिब में रूकने की कोई व्यवस्था नही है वहां तो आक्सीजन की कमी हो जाती है कई लोग जिन्हे सांस की समस्या है या कमजोर हैं वे तो पहले से ही आक्सीजन की एक बोतल सी आती है उसे लेकर चलते है । हमें तो जरूरत पडी नही खैर
बहुत देर तक बहस होती रही । आखिर में नतीजा ये निकला कि मै सबसे बडा था और यात्रा का प्रोग्राम भी मैने ही बनाया था तो मैने जोर दिया तो तीनो को मानना पडा पर अब एक नई बहस शुरू हो गयी कि पैदल चलना है कि घोडो पर । पहले 13 किलोमीटर की चढाई फिर 6 किलोमीटर फूलो की घाटी का आना जाना घाटी में भी कई किलोमीटर घूमें थे । उपर से दो दिन का सफर बाइक से करने की वजह और ठंड और बारिश् की वजह से पैर भी अकड रहे थे । और फिर सारे लाटसाहब थे । ना तो कोई पैदल चलने वाला था ना कोई इतना चलने का अभ्यस्त था । बाइक पर 450 किलोमीटर का सफर कर चुके थे । मतलब दो दिन से तो कूल्हे भी दुख रहे थे उपर से बाइक से उतरते ही चढना शुरू कर दिया तो पैर अकड गये अंकित और आशु चाहते थे कि आते वक्त घोडे करे जाये जबकि जितेन्द्र चाहता था कि चढने में ज्यादा जोर पडेगा तो क्यों न घोडे यहीं से कर लो । तय ये हुआ कि घोडे देखेंगे अगर ज्यादा महंगे ना हुए तो यही से कर लेंगे नही तो फिर उपर जाके देखेंगे ।![]() |
ये है रास्ते का फोटो सामने के पहाड से |
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ये चादर वाले महाशय हमारे वाले ही हैं |
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बस पहुंचने ही वाले हैं |
घांघरिया में भी एक गुरूद्धारा है जिसमें रहने की सुविधा है पर हमें तो जगह मिली नही क्योंकि दिन के बारह बजे के आसपास जो लोग घांघरिया पहुंचते है वे गुरूद्धारा तो जा नही सकते बस वे घांघरिया वाले गुरूद्धारे में डेरा जमा लेते हैं हमारी तरह बाद में आने वालो को तो होटल ही लेना पडता है
एक बात और इतनी उंचाई पर जहां चढने में मैया याद आ जाये वहां पर सामान सब मिलता है । हलवाई की दुकान भी और दूध कढाई मे चढा हुआ । दिमाग पे जोर डाला यार यहां तक ना तो कोई दुधारू पशु मिला । एक छोटा सा गांव पडा था रास्ते में भ्यूंडार उसी में दस बीस घर । और रास्ते में चाय की दुकान होंगी कम से कम सौ । इतना दूध कहां से आता होगा । हलवाई से कहा भाई चाय पकौडी कुछ दे दो और एक बात बताओ क्या गांव में दूध इतना हो जाता है कि यहां का काम चल जाता है । एक बार को तो हलवाई सकपका गया बोला जी दूध बढिया है आप पी कर देखो । मैने कहा तुम बताओ दूध असली है या पाउडर का ? बस जी वो तो गर्मा गया बोला जी दूध सब असली ही होते है तुम कोई डाक्टर हो जो दूध देखकर बता दोगे ? मै बोला भाई गर्म ना होवे मुझे पता चल गया दूध कैसा है । उसे लगा सुबह सुबह आ गये मेरी दुकानदारी खराब करने । हमने भी नाश्ता पानी किया और चलते बने ![]() |
ब्रहकमल फूल यही है पीला वाला |
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बादलो के पार |
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ग्लेश्यिर |
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गोविंद घाट का एक और पहलू |
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ये ठंड और ये रास्ता |
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किजिये लक्ष्मण लोकपाल जी के दर्शन दुनिया में एकमात्र |
रास्ते में एक एक चाय और पी । वहां से हमने आशु और जितेन्द्र को बिठा दिया घोडे पर चलने के समय । मै और अंकित पैदल चलने लगे । आगे चलकर हमें बहुत सारे ब्रहकमल के फूल मिले और बर्फ की जमी हुई नदी भी ।
जिसका सब रूककर और घोडो से उतर उतरकर एंजोय कर रहे थे । हम भी उतरे और बर्फ की उस जमी हुई नदी या ग्लेशियर भी कहते हैं उसको के पहले पास खडे होकर फोटो खिंचाने लगे । फिर धीरे धीरे उपर को चढना शुरू कर दिया । पक्की जमी हुई बर्फ थी जो बरसात के मौसम मे भी ऐसे ही जमी हुई थी । उस पर फिसलन बहुत होती थी कई बार फिसलने से बचे । पर घुमक्कड को फोटो खिंचाने का बहुत शौक होता है । इसलिये फोटो भी खींचे और फिर चल पडे । गुरूद्धारे के नजदीक से को जाकर ब्रहकमल के फूल मिलने लगे । वहां लिखा था कि ये बहुत दुर्लभ फूल है इसको न तोडे पर कुछ लोग तो जाते ही इसलिये हैं कि कुछ नया कर सकें तो उन्होने कई फूलो को नुकसान पहुंचाया । ऐसे लोगो को तो मुझे पर्यटक कहने में भी शर्म आती है । गुरूद्धारे पहुंचने पर घोडे वाले ने एक जगह हमें उतार दिया और बोला कि जाओ और एक घंटे में आ जाना । सब घोडे वाले वही पर इकठठा थे हमने पूछा हम तुम्हे मिलेंगे कैसे वो बोले बाबूजी आपको जरूरत नही पडेगी हम खुद आपको देख लेंगे ।![]() |
ये फूलो की घाटी का रास्ता पिछली पोस्ट में छूट गया था |
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गोविन्द घाट का एक और नजारा |
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सब रूके हुए हैं |
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बैरियर लगा है |