पहले भाग में आपने पढा कि हम किस तरह गांव पहुंचे और अगले दिन सुबह जब मै छत पर बैठा तो हमारी चाय वहीं आ गयी । पहली बार ऐसा हुआ कि चिडिया यानि...
रात को भी आते ही ताईजी को पता चला कि बीनू घर आया है तो वो उसे ढूंढने निकल पडी । मुझे जानकारी नही थी नही तो तरीके से आता कि बीनू को कई डयूटी करनी पडती हैं । रात को ताईजी ने चूल्हे के सामने बिठाकर रोटी खिलाई साथ ही घी वाले बर्तन से लगभग सौ ग्राम से ज्यादा घी बीनू की कटोरी में डाल दिया । ये गांव का प्योर घी था पर दिक्कत ये थी कि मै घी और मलाई नही खा पाता । मुझे जाट देवता की याद आ गयी । ताईजी ने बडी मना करने के बाद भी एक चम्मच घी तो दे ही दिया । मैने केवल एक ही रोटी खायी थी और उसके बाद ताईजी ने एक घंटे से चूल्हे पर पकने के लिये जो दूध रखा था वो गिलास भरकर दे दिया । अब पेट फुल हो गया था पर पता चला कि अभी तो भाई के यहां पर भी खाना है । वहां पर भी खाने में दो रोटिया खानी पडी और इसके बाद बीनू के दोस्त के यहां पर भी खाना तैयार था । मैने तो हाथ जोडे और सो गया ।
ये तो रात की बात थी वापिस आते हैं सुबह के नाश्ते पर । नाश्ते में ताईजी ने दाल के परांठे बनाये थे । लोकल दाल के परांठे और फिर से एक गिलास दूध ने शाम तक खाने की जरूरत महसूस नही होने दी । मैने पूछा तो पता चला कि ताईजी ने गाय और बहुत सारी बकरियां पाली हुई है और अभी हाल ही में दस बकरी बेची हैं जबकि उनकी एक बकरी को हाल ही में बाघ ने खा लिया जब वो जंगल में घास चुगने गयी थी ।
बीनू के बडे भाई से मुलाकात हुई । वो पुराने जमाने के बीएड और टीईटी भी पास कर चुके हैं और ओवर एज होने की वजह से उनकी योग्यता का सही उपयोग नही हो पाया । सरकारी नौकरी में ना आ पाने की वजह से अब वो द्धारीखाल में टयूशन पढाकर परिवार का गुजारा चलाते हैं पर उन्होने अपने बच्चो को उच्च शिक्षा दिलाने के लिये बाहर कमरा भी लिया हुआ है । एक ही बात पर अडिग हैं कि बच्चो को कुछ बनाना है बस यही एक उददेश्य है जो मै नही कर पाया वो बच्चे कर लें ।
गांव और पहाड के हालात पर उनसे बात हुई तो उन्होने बताया कि उत्तराखंड को मनीआर्डर स्टेट कहते हैं । एक बार को रक्षा विभाग में सबसे ज्यादा लोग उत्तराखंड के थे और वो रिटायर होकर गांव आ गये । अब सबसे ज्यादा पेंशनर यहीं पर बसते हैं और गांव में रोजगार हो या ना हो पर उनकी पेंशन से गांव में रोजगार चलते रहते हैं पर बुजुर्ग होने के साथ साथ अब वो लोग खत्म हो रहे हैं और नयी नौकरियो में रक्षा में अब इतने लोग भर्ती नही हो रहे हैं तो आगे पहाड के हालात और खराब होंगें ।
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बीनू के गांव में पीने का पानी 7 किलोमीटर दूर पाइपलाइन से आता है जो चेल्लूसैंण गांव से आती है । राजनीति का शिकार होने की वजह से गांव आने का रास्ता बीस साल से अटका पडा है । लोगो के पास मुख्य जरिया केवल पशुपालन ही रह गया है । खेती में इस बार आठ महीने से पानी नही बरसा तो खेती भी नष्ट हो गयी । दूसरी कमी ये है कि गांव में लोग बहुत कम रह गये हैं । युवा तो ज्यादातर नौकरी करने या पढने के लिये कोटद्धार या रिषीकेश जा रहे हैं या फिर दिल्ली की ओर भाग रहे है। । गांव तो तभी आबाद रह सकता है जब गांव में लोग हों । इस बार जब हम गये तो गांव में सब्जियो की भी बहुत किल्लत थी ।
तो रात को राई की सब्जी खाई तो दिन में भी । राई सरसो या पालक के साग की तरह की होती है कुछ कुछ । तुरंत तोडी और तुरंत बना दी सब्जी । यहां पर गैस है पर बहुत ही कम इस्तेमाल करते हैं क्योंकि सिलैंडर लाना महंगा और कष्टदायक है । कुछ छोटे मोटे सामानो के अलावा बाकी सब सामान या तो कंधे पर ढोकर या फिर खच्चरो पर मंगवाना पडता है । हर सामान के लिये 12 किलोमीटर पैदल आना जाना तो कोई नही करेगा ना क्योंकि सबके पास गाडी तो है नही जो तीन किलोमीटर तक भी आ जायेगी ।
बीनू ने भी गांव की इन्ही परेशाानियो को देखते हुए गांव के पलायन को रोकने के लिये अपनी ओर से पहल की और गांव में दस साल से बंद रामलीला को अपने खर्चे पर कराना शुरू किया । गांव में लोगो के पास अपना समय बिताने और मनोरंजन करने के लिये यही चीजे होती हैं और अगर ये भी ना हो तो जिंदगी में कोई रंग ही नही होगा । तीन साल से उसकी रामलील हो रही है और उससे पलायन रूकने का उदाहरण वहीं मिल गया जब उनकी दूसरी ताईजी ने बताया कि वो पहली बार रामलीला होने के बाद दोबारा बच्चो के पास श्रीनगर नही गयी और तीन साल से यहीं पर है ।
इस रामलीला में बीनू का बचपन का मित्र भी बहुत सहयोग करता है । रामलीला रात को ग्यारह बजे शुरू होती है और सुबह तक चलती है । इस बार और बडे स्तर पर कराने का कार्यक्रम है । गांव के लोग ही दर्शक होते हैं और गांव के लोग ही कलाकार । वैसे रामलीला देखने आस पास के गांवो से भी लोग आते हैं ।
वैसे बीनू के गांव की एक और खासियत है कि ये बीनू की उपजाति कुकरेती है और ये गांव कुकरेतियो की मूल स्थली है । कुकरेती सारे विश्व में फैले हुए हैं वैसे तो पर उनकी कुलदेवी इसी गांव में है । बताते हैं कि कुलदेवी ने एक व्यक्ति को सपने में आकर बताया कि मेरी स्थापना इस स्थान पर करो तो यहां पर उनका मंदिर बनाया गया । तो विश्व भर में फैले कुकरेतियो की जड यहीं पर है ।
अब आते हैं इस बात पर कि इस गांव के बारे में मैने हैडिंग में वीकेंड डेस्टिनेशन क्यों लिखा
तो मै आपको बता दूं कि दिल्ली से इस गांव की दूरी करीब 300 किलोमीटर है और दिल्ली से कोटद्धार का किराया 190 रूपये है जबकि कोटद्धार से गुमखाल या द्धारीखाल तक का 90 रूपये का है । गांव में पर्यटन कभी नही हुआ है और गांव वाले इसके बारे में सोचते नही हैं । उन्हे इस बात का तो अंदाजा है कि उनका गांव सुंदर है और सुंदर जगह है पर इसे कैसे प्रमोट किया जाये इसके बारे में किसी की कोई राय नही है । मुझे तो ये जगह यहां से 25 किलोमीटर दूर लैंसडोन से ज्यादा सुंदर लगी । एक तो वहां पर होटल बहुत महंगे हैं जबकि यहां इस गांव में होमस्टे सिर्फ 500 रूपये में किया जा सकता है । खाना भी यहां पर तीन समय का 150 रूपये में किया जा सकता है यानि 650 रूपये रोज और वीकेंड पर शुक्रवार को रात को दिल्ली से निकलकर यहां पर शनिवार सुबह आया जाये तो शनिवार की रात को ही रूकना होगा । रविवार को शाम के समय यहां से निकलकर वापस दिल्ली पहुंच सकते हैं ।
तो आप 600 रूपये किराया और 650 रूपये में रहना खाना करके दो दिन का शानदार वीकेंड यहां पर मना सकते हैं । अगर आप होमस्टे में नही रूकना चाहें तो टैंट भी लगा सकते है पर टैंट को गांव में ही लगाना होगा । यहां के जंगल में बाघ , भालू , हिरन और कुछ अन्य जानवर रहते हैं और वो दिन में गाय और बकरियो की तलाश में रहते हैं । आज तक किसी आदमी को कुछ नही कहा है पर जानवर जानवर होता है ।
अगर आप ये सोचते हैं कि यहां की सुंदरता , सूर्यास्त और सूर्योदय के अलावा यहां पर करने को क्या है तो मै आपको बता दूं कि वैसे तो यहां पर एक सप्ताह भी कम है । यहां पर आने के लिये ही आपको अगर अपना वाहन है तो 3 किलोमीटर का ट्रैक एक ओर से पडेगा । वरना तो 6 किलोमीटर आपको चलना होगा । अगर आप ट्रैकिंग के शौकीन है तो कई ट्रैक यहां से निकलते हैं । इनमें सबसे सुंदर ट्रैक है हनुमान गढी से भैरव गढी का ।
रोड पर स्थित द्धारीखाल से हनुमान गढी मंदिर जो कि चोटी पर है तीन किलोमीटर का ट्रैक है यही से पहाडो की धार पर चलते हुए चढाई और उतराई करते हुए भैरव गढी पहुंच जाते हैं जो कि बहुत प्रसिद्ध मंदिर है और धार पर चलते हुए करीब आठ नौ किलोमीटर पडता है उसके बाद दो किलोमीटर की उतराई करके आप सडक पर आ सकते हैं ।
गांव में कई लोग हैं जो इस ट्रैक या अन्य ट्रैक को करा देते हैं । बर्ड वाचिंग में तितलियो और अन्य कई पक्षियो की अनजानी प्रजातियां यहां पर आपको मिलेंगीं । वास्तव में पहाड के गांव कैसे होते हैं ये आपको अहसास होगा क्योंकि यहां पर अभी व्यवसायिकता नही आयी है जो आपका मन खिन्न कर दे पर साथ ही आपको लग्जरी अहसास को भूलकर देशी मजा लेने के लिये तैयार रहना होगा ।
कुल मिलाकर 1500 से 2000 में सरकारी या अपने वाहन से दो से तीन दिन के किसी भी वीकेंड पर यहां का मजा लिया जा सकता है । होमस्टे के लिये बीनू कुकरेती से सम्पर्क करना पहले से ठीक रहेगा और जाते समय कुछ बाजरा और सब्जियां लेते जायें तो सोने पे सुहागा । या फिर पहले से बता दें तो द्धारीखाल से मंगवाई भी जा सकती हैं । अब एक मजेदार किस्सा सुनाता हूं । हमने अपनी गाडी जहां पर खडी की थी वहां से शाम को फोन आया गांव में बीनू के भाई के पास की आपकी गाडी की पार्किंग लाइट खुली है उसे बंद कर जाओ । हुआ ये कि हमने रात भर सफर किया और दिन में भी चलते रहे । जब यहां पर पहुंचे तो दिन के दो बजे थे । उस समय पार्किंग लाइट दिखी नही और हम गाडी बंद करके आ गये । फोन आने के समय मै तो सो रहा था और किसी की हिम्मत नही हुई कि सिर्फ गाडी की लाइट बंद करने के लिये 6 किलोमीटर का सफर करे । तो सुबह जब हम वापस निकले गांव से और कार के पास पहुंचे तो मैने सोचा कि कार धक्के से स्टार्ट हो जायेगी । मै ड्राइविंग सीट पर बैठा और बीनू उनके दोस्त और एक दो लोगो ने गांव की ओर वाले रास्ते पर उतराई की ओर काफी दूर तक धक्का लगाया पर गाडी स्टार्ट नही हुई । क्योंकि आजकल की गाडियो को हल्का सा करंट जरूर चाहिये और हमारी कार की बेट्री बिलकुल ही खत्म थी । धक्का लगाते लगाते हम ऐसी जगह जा पहुंचे जहां से कार को चढाना वापस नामुमकिन था । तो फिर एक पास के गांव के आदमी को फोन करके बुलाया गया जिसके पास पुरानी सी एक जीप है ।
उस जीप से रस्सी बांधकर पहले तो कार को पुरानी जगह वापस लाये । फिर उसकी बैट्री निकाली और हमारी कार पर रखकर उसके तार से जोडकर सैल्फ लगाया तब जाकर गाडी स्टार्ट हुई । तो पहाडो में ना हो तो कुछ ना हो और हो जाये तो बहुत दिक्कत भी हो जाती है पर वो तो भला हो कि वहां पर अच्छापन और भलाई दिल्ली से कई गुना ज्यादा है और वहां के लोगो के पास समय भी ज्यादा है वरना यहां तो तडपते को देखकर भी लोग निकल जाते हैं ।
बीनू तेरा गांव बडा प्यारा यही गीत गाते हुए हम यहां से वापस चले इस निश्चय के साथ कि अगली बार जल्दी ही वापस आना है और वो भी परिवार के साथ । तो अगर मेरे पाठको में भी कोई इस लेख को पढकर यहां पर जाना चाहे तो सम्पर्क कर सकता है ।वैसे बहुत सारी बाते अभी रह गयी यहां के बारे में लिखने से
शायद फिर कभी लिखने के लिये
कुकरेतियो की कुलदेवी |
हमारा कमरा |
दाल के स्वादिष्ठ परांठे और दूध |